Geeta

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मैं नहीं अभिसारिका

मैं नहीं अभिसारिका सी,

तो क्यों तुम दीवाने से होने लगे,

ना केश मेरे काले घनेरे,

ना लबों पर सुर्खियां ही कायम,

कुछ आड़ी तिरछी सी रेखाएं सजी हैं,

गाल और माथे पर इतराती बलखाती।

उंगलियों पर गिनाने लगूं तो,

खत्म हो जाएं जोड़ सभी,

किंतु उम्र फिर भी रह जाए बाकी।

आंखों में झांकने लगो तो शायद…..,

ना उमंगों का नाम कोई और ना सागर उमड़ता,

बस कुछ भूली यादों की परछाइयां दिखेंगी।

हां….मगर….,

ये तो सत्य है सदा से,

कि बेशकीमती हैं सभी स्मृतियां मेरी,

आज के इस दौर में वो कहां मिलेंगी,

किंतु क्या तुम्हें उनसे और उन्हें तुमसे,

वो मेरी अमानत और मैं उनकी।

फिर भी तुमसे बंधन ये कैसा,

कैसा ये गठजोड़ किया है,

ना लिप्सा लालसा कोई,

ना आकांक्षा हमेशा के लिए पाने की तुम्हें,

ना सहेजने या रोकने का प्रयास ही,

एकटक निहारकर तृषित चातक की भांति,

प्रेम अमृत से भिगो सारा तनमन,

तुम्हें हिय में बसाने को बस हृदय मचले,

क्यों बार बार मचले।

फिर….. तुम तो तुम ही हो….,

आज के नायक….अमरदीप प्रेम के,

तुम्हारे लिए क्या रूप की कमी कोई,

या अप्सराओं से वास्ता न हो,

ऐसा भी नहीं है…..,

तो फिर कहो ना….,

मैं नहीं अभिसारिका सी…..,

तो क्यों तुम दीवाने से होने लगे।

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